"मानवता में देवत्व" के विचार ने ज्ञानवाद, ईसाई धर्म, हिंदू धर्म और पारलौकिकवाद सहित कई धार्मिक परंपराओं में विभिन्न रूप ले लिए हैं। क्या परमात्मा हमारे भीतर एक चिंगारी है या क्या यह हमारे पूरे अस्तित्व में व्याप्त है या उससे भी आगे निकल जाता है? यह आज हमारे लिए कैसा दिख सकता है और यह हमारे कार्यों को कैसे सूचित कर सकता है?